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C als neue Leitversion  |
C als neue Leitversion  |
| A Leuth 26 |
| I | |
| I | A Leuth 26 = KLD 11 Ia 1 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 38r |
| | [[1 Paragraphenzeichen am Rand (Liedbeginn)]][ini D|1|blau]ie liehten lieben #s{#v^o|üe}ze tage reine, |
| | die #sint zerg{a|â}n·, / |
| | {o|ô}w{e|ê}, leider von der tr{#v^o|üe}ben z{i|î}t·. |
| | d{a|â} von ich w{e|æ}re ganzer vr{eu|öu}den eine, |
| | wan· / d#vr den w{a|â}n, |
| | der mir liebet #vn#d n{a|â}he l{i|î}t |
| | #vmbe ein kint, #binnenr dar alle m{i|î}ne #sinne / |
| | gewendet #sint. #binnenr erwirb ich #s{i|î}ne minne, |
| | #s{o|ô} wird ich geil |
| | #vn#d h{a|â}n der welde / m{i|î}ne#n teil·. |
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| C Neidh 145 (227) |
| I | |
| I | C Neidh 145 (227) = KLD 11 Ia 1; SNE I: C 227 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 278vb |
| | [ini D|2|rot]ie liehte#n liebe #s#vmertage reine·, |
| | die / #sint zerg{a|â}n·, |
| | {o|ô}w{e|ê}, leider vo#n der tr{u^e|üe}-/ben z{i|î}t·. |
| | d{a|â} vo#n belei{b|p} ich aller #sorgen / eine· |
| | d#vr den w{a|â}n·, |
| | der mir bel{i|î}bet #vn#d / n{a|â}he#n l{i|î}t·: |
| | da#st ein kint, an die ich m{i|î}n[ho e ho] / #sinne· [[3 -8 Inkongruenz des Genus (i¬ein kint, an die~i; i¬s{i|î}ne mi#nne~i) lässt sich auf die Konkurrenz von grammatischem und natürlichem Geschlecht zurückführen (h¬25~hMhd. Gramm. § S 137,1).]] |
| | gewendet h{a|â}n[rad t rad]·. erwirbe ich #s{i|î}-/ne mi#nne·, [[1 möglicherweise Reimpunkt auf radiertem i¬t~i]] |
| | #s{o|ô} bin ich geil· |
| | #vn#d h{a|â}n ze d#er / w#erlde den be#ste#n teil·. / |
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| C Knecht 5 |
| I | |
| I | C Knecht 5 = KLD 11 Ia 1 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 317ra |
| | [ini D|2|rot]ie liehte#n liebe #s{#v^e|üe}{#s#s|z}e tage reine·, |
| | die #sint / zerg{a|â}n·, |
| | {o|ô}<<w{e|ê}, leid#er vo#n der tr{u^e|üe}be#n z{i|î}t·. |
| | d{a|â} vo#n / ich w{e|æ}re ganzer fr{o^ei|öu}de#n eine·, |
| | wa#n dur de#n w{a|â}#n·, / |
| | d#er mir liebet #vn#d n{a|â}he#n l{i|î}t· |
| | #vmbe ein kint·, #binnenr / dar alle m{i|î}ne #si#nne· |
| | gewendet #sint·. #binnenr erwirbe / ich #s{i|î}ne mi#nne·, |
| | #s{o|ô} wird ich geil· |
| | #vn#d h{a|â}n der / w#erlde m{i|î}ne#n teil·. / [[1 i¬werlde~i$ i¬d~i aus i¬t~i gebessert]] |
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| A Leuth 27 |
| II | |
| II | A Leuth 27 = KLD 11 Ia 2 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 38r |
| | [ini D|1|rot]az i#st ein w{i|î}p, dar ich mich h{a|â}n gewendet |
| | n#v manegen tac·. / |
| | an>>der vinde ich niht wan kindes m{#v^o|uo}t. |
| | mich h{a|â}t m{i|î}n h#erze lange dar ge#sendet·, / |
| | daz ringe wac [[3 i¬d#c~i lässt sich als Subjekt verstehen (da es im Nebensatz in V. 6 als solches aufgegriffen wird), möglich wäre aber auch Ortsrelativum mit enklitischem Personalpronomen: i¬dâ ez~i.]] [[3 i¬wegen~i stV. mit Akk. d. Pers. ›dünken‹ (Le III, Sp. 725 f.).]] |
| | ir gn{a|â}de, al#s ez noch leider t{#v^o|uo}t. |
| | h_a|e_tte ir l{i|î}p #binnenr n{a|â}ch m{i|î}nem wil/len g{#v^o|üe}te, |
| | #si w{e|æ}r ein w{i|î}p·, #binnenr d{#v^i|iu} mich von #vngem{#v^o|üe}te |
| | #schiede gar. |
| | n#v i#st des niht·, / noch #singe ich iem#er dar·. |
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| C Neidh 146 (228) |
| II | |
| II | C Neidh 146 (228) = KLD 11 Ia 2; SNE I: C 228 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 278vb |
| | [ini D|2|rot]a{s|z} i#st ein w{i|î}{b|p}, an die ich h{a|â}n ge-/wendet· |
| | die m{i|î}ne tage·. |
| | an der vin-/de ich niht wan kindes m{#v^o|uo}t·. |
| | _#s|m_ich h{a|â}t / m{i|î}n h#erze lange dar ge#sendet·, |
| | [del die mine del] / [del tage del] d#c ringe wage· [[3 i¬wage~i der Form nach eigentlich Konj. Präs. von i¬wagen~i swV. ›bewegen; bewegt werden, sich bewegen‹ (Le III, Sp. 636); dann wäre hier eine Absicht in Form eines Finalsatzes (›dass, damit‹) ausgedrückt. Doch ist i¬wage~i auch als Sing. des Ind. Prät. von i¬wegen~i stV. ›schätzen‹ belegt (Le III, Sp. 725f.); es handelte sich dann um einen Relativsatz (i¬d#c~i als Objekt). Möglicherweise zwang der Reim auf i¬tage~i in V. 2 zu dieser Wortform; die übrige Überlieferung hat in V. 2 i¬tac~i und in V. 5 i¬wac~i, also Ind. Prät. von i¬wegen~i.]] |
| | ir m{#v^o|uo}t, als er no{h|ch} / h{u^i|iu}re t{u^o|uo}t·. |
| | het ir l{i|î}p #binnenr n{a|â}ch m{i|î}ne#m willen / g{#v^e|üe}te·, |
| | #si w#{e|æ}re ein w{i|î}p, #binnenr d{#v^i|iu} mich vo#n #vnge-/m{#v^e|üe}te· |
| | wol #schiede gar·. |
| | #vn#d i#st des niht, / #s{o|ô} #singe ich aber dar·. |
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| C Knecht 6 |
| II | |
| II | C Knecht 6 = KLD 11 Ia 2 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 317ra |
| | [ini D|2|rot]a{s|z} i#st ein w{i|î}{b|p}, dar ich mich h{a|â}n gewe#n-/det· |
| | n#v man{i|e}ge#n ta{g|c}·. |
| | an d#er vinde ich niht / wa#n kindes m{#v^o|uo}t·. |
| | mich h{a|â}t m{i|î}n h#erze la#nge dar / ge#sendet·, |
| | d#c ringe wa{g|c}· [[3 i¬d#c~i lässt sich als Subjekt verstehen (da es im Nebensatz in V. 6 als solches aufgegriffen wird), möglich wäre aber auch Ortsrelativum mit enklitischem Personalpronomen: i¬dâ ez~i.]] [[3 i¬wegen~i stV. mit Akk. d. Pers. ›dünken‹ (Le III, Sp. 725 f.).]] |
| | ir gen{a|â}de, als e{s|z} no{h|ch} / leider t{u^o|uo}t·. |
| | het ir l{i|î}{b|p}##· #binnenr n{a|â}{h|ch} m{i|î}ne#m wille#n g{u^e|üe}te·, / |
| | #si w#{e|æ}re ein w{i|î}{b|p}·, #binnenr d{u^i|iu} mich vo#n #vngem{#v^e|üe}te· |
| | wol / #schiede gar·. |
| | n#v i#st de#s niht, do{h|ch} #singe ich iemer / #Zdar·/. |
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| C Neidh 147 (229) |
| III | |
| III | C Neidh 147 (229) = SNE I: C 229 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 278vb |
| | [ini S|2|rot]i i#st #vn#u#erborge#n #vn#d d{a|â} b{i|î} be#scheide#n·, / [[2 i¬unverbolgen~i Nei/Ha]] |
| | d#c i#st vil w{a|â}r;· |
| | alle ir f{u^o|uo}re i#st vo#n / der g_#v|o_gelheit·. |
| | #si kan #sich liebe#n #vn#d nie-/ma#n leide#n· |
| | al d#vr d#c #i{a|â}r·. |
| | d{a|â} vo#n ich ir #iu/ge#nde h{a|â}n ge#seit·. [[2 i¬tugende~i Nei/Ha, SNE]] [[3 i¬#iu/ge#nde ge#seit~i$ ›Jugend zugesprochen, als jugendlich gepriesen‹? Vgl. i¬êre/lop/ruom sagen~i swV. mit Dat. ›ehren, loben, preisen‹ (Hennig, S. 274).]] |
| | d#vr d#c wil ich ir min-/ne g#erne v{a|â}ren·. [[3 i¬vâren~i swV. ›nachstellen‹ (Le III, Sp. 21).]] |
| | mir w►#c|as◄ #s{o|ô} wol[del · del]: ich #sa{h|ch} / #si fr{o|ô} geb{a|â}re#n·, |
| | d{o|ô} ich b{i|î} ir was· |
| | #vn#d ir / habt d#c hemde, #vn{tz|z} #si{s|z} gelas·. [[3 i¬habt~i Die Form stammt von i¬haben~i swV. ›(fest)halten‹ (BMZ I, S. 594-601), das aber oft mit i¬heben~i/i¬heven~i stV. ›heben‹ (BMZ I, S. 643) vermischt und verwechselt wird (Le I, Sp. 1131, 1199 f.).]] [[3 i¬gelesen~i stV. ›zusammenlegen‹ (BMZ I, S. 1006) ({Singer 1920#193}, S. 18 schlägt ›anziehen‹ vor); möglich erscheint auch die für das unpräfigierte i¬lesen~i belegte Bedeutung ›in Ordnung bringen‹, da ja das Hemd vom Ich ›angehoben‹ worden ist.]] |
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| C Neidh 148 (230) |
| IV | |
| IV | C Neidh 148 (230) = SNE I: C 230 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 278vb |
| | [ini D|2|rot]{o|ô} bat mich d{u^i|iu} mi#nne{k|c}l{i|î}che #singe#n· / |
| | den m{i|î}ne#n #sanc;· |
| | des w►#c|as◄ ich mit tr{u^i|iu}-/wen vil gemeit·. |
| | wa#n [[3 i¬wan~i = i¬man~i.]] br{a|â}ht ir #sn{u^e|üe}re: / #si beg#vnde twingen [[3 i¬twingen~i stV. ›(zusammen-)drücken, pressen‹ (Le II, Sp. 1602).]] |
| | die runze#n lanc.#· // |
| | ich was in dem hal#se niht bereit.##· |
| | d#c v#er#st{u^o|uo}n[ho t ho] / d{u^i|iu} g{#v^o|uo}te vil gef{u^o|uo}ge·, |
| | d#c ich mich #schampt. / #si #schan{h|c}t mir mit dem kr{u^o|uo}ge·, |
| | da{s|z} mir / d{u^i|iu} kel· |
| | wider¦wurde heiter #vn#d hel·. / |
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| C Neidh 149 (231) |
| V | |
| V | C Neidh 149 (231) = SNE I: C 231 |
| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 279ra |
| | [ini I|2|rot]%R {p|b}irn<<mo#st, den tran{k|c} ich al#s{o|ô} #swinde·: / |
| | des was #si fr{o|ô}·. |
| | d{o|ô} #san{g|c} ich #vns beide#n gar / gen{#v^o|uo}c·. |
| | vil z{u^i|ü}hte{k|c}l{i|î}ch #sprach #si z{#v^o|uo} ir / ge#sinde·, |
| | vil liebe al#s{o|ô}·: |
| | ›bring #vns aber / eine#n volle#n kr{u^o|uo}c·, |
| | d#c wir den tac hie mit / fr{o^ei|öu}de#n al#s{o|ô} v#er#sli^^[exp e exp]{#s#s|z}en·, [[3 i¬verslîzen~i stV. ›hin-/zubringen‹ (Le III, Sp. 235).]] |
| | die br{#v|û}ne#n n{#v|ü}{#s#s|zz}e mit / ein ander bi^^{#s#s|z}en·!‹ |
| | d{o|ô} #sprach d{#v^i|iu} dirn·: |
| | ›dar / z{#v^o|uo} #schenke ich m{i|î}ner teige#n {p|b}irn·.‹ [[3 i¬schenken~i swV. hier mit partit. Gen. ›einschenken, zu trinken geben‹ – offenbar ist an den Birnenmost aus V. 1 gedacht; für die Bedeutung ›schenken, geben‹ wäre eher ein Akkusativobjekt als ein partit. Gen. zu erwarten (Le II, Sp. 702 f.).]] [[3 i¬teic~i Adj. ›weich, bes. durch Fäulnis weich geworden‹ (Le II, Sp.1413).]] |
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