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A als neue Leitversion  |
C als neue Leitversion  |
E als neue Leitversion  |
O₁ als neue Leitversion  |
| S Wa/14rb 3 |
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| Überlieferung: Den Haag / 's-Gravenhage, Koninklijke Bibliotheek, Cod. 128 E 2 , fol. 14rb |
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| | Saget mir {y|i}ema#n: waz i#st mi#nne? // |
| | #P[[1 Paragrafenzeichen fälschlich vor diesem Vers und nicht am Strophenbeginn]] %W{ij|i}#st ichs[[3 Beide i¬ichs~i = i¬ich es~i (Gen. part. ›davon‹).]] ein {d|t}eil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414).]], #s{o|ô} wi#st ichs g#erne m{e|ê}.¦ / |
| | %Der #sich ba{s|z} dan ich _v#ermermee|versinne_,[[1= (i¬v#erinermee~i?), Konjektur aus Reimgründen nach ACEf]][[3 i¬versinnen~i stV. ›verstehen, sich verstehen auf‹ (Le III, Sp. 230).]] / |
| | %Beri{ch|h}te[[3 i¬berihten~i swV. ›unterweisen, belehren‹ (Le I, Sp. 192).]] mich, d{o|u}rch wa{s|z} {z|s}i {d|t}{oy^.|uo}t {z|s}{o|ô} w{e|ê}. / |
| | %Mi#nne i#st mi#nne, {d|t}{ey^.|uo}t #si wol; / |
| | %{D|T}{ey^.|uo}t {z|s}i w{ee|ê}, {z|s}{o|ô}ne hei{#s|z}et[[3 Ergänze: ›sie‹. Zur Nichtbezeichnung des pronominalen Subjekts vgl. h¬25~hMhd. Gramm. § S 110.]] n{#z|iht} re{ch|h}te mi#nne – / |
| | %Su#s {i|e}n<<w{ey|ei}{s|z} ich n{#z|iht}, wie #si h{ey|ei}{#s|z}e#n[[1 i¬h{ey|ei}{#s|z}e#n~i$ i¬y~i gebessert aus i¬z~i]] #sol. |
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| A Wa 13 |
| IV | |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 6r |
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| | [ini S|1|rot]aget mir ieman, w#c i#st / minne, |
| | #s{o|ô} wi#st ich gerne m{e|ê}·. |
| | #swer #sich rehte n#v ver#sinne·,[[3 i¬versinnen~i stV. ›verstehen, sich verstehen auf‹ (Le III, Sp. 230).]] |
| | d#er berihte[[3 i¬berihten~i swV. ›unterweisen, belehren‹ (Le I, Sp. 192).]] mich: wie / t{#v^o|uo}t #si #s{o|ô} w{e|ê}·? |
| | minne i#st minne, t{#v^o|uo}t #si wol·; |
| | t{#v^o|uo}t #si w{e|ê}, #s{o|ô} enheizet #si niht rehte / _[om ... om]|min_ne – [[1=; am Zeilenbeginn Raum für etwa drei bis vier Buchstaben freigelassen und mit einem tildeförmigen Zeichen gefüllt]] |
| | #s_oz|us_[[1=, Konjektur nach CEfS]] enweiz ich, wie #si danne heizen #sol·. |
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| C Wa 245 (241 [249]) |
| II | |
| II | C Wa 245 (241 [249]) = L 69,1 |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 135rb |
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| | [ini S|2|rot]aget mir ieman, w#c i#st mi#nne·, |
| | #s{o|ô} we#st / ich gerne {o^v|ou}ch dar#vmbe m{e|ê}#·. |
| | #swer #sich / rehte n#v v#er#sinne·,[[3 i¬versinnen~i stV. ›verstehen, sich verstehen auf‹ (Le III, Sp. 230).]] |
| | der berihte[[3 i¬berihten~i swV. ›unterweisen, belehren‹ (Le I, Sp. 192).]] rehte mich: / wie t{u^o|uo}t #si w{e|ê}·? |
| | mi#nne i#st mi#nne, t{u^o|uo}t #si wol·; / |
| | t{u^o|uo}t #si w{e|ê}, #s{o|ô}ne hei{#s#s|z}et #si niht mi#nne – |
| | #s#vs / enwei{s|z} ich, [del [exp w#c exp] del] wie #si danne hei{#s#s|z}e#n #sol·. / |
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| E Wa 157 |
| I | |
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| Überlieferung: München, UB, 2° Cod. ms. 731, fol. 177rb |
| | [rub %walth_t|_er rub] / |
| | [ini S|2|rot]aget mir ieman: waz i#st minne·? / |
| | weiz ich des ein teil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414).]], ich we#st>>e{z|s}[[3 i¬e{z|s}~i Gen. part. ›davon‹.]] / gerne m{e|ê}·. |
| | der #sich baz denne ich v#er#s/inne·,[[3 i¬versinnen~i stV. ›verstehen, sich verstehen auf‹ (Le III, Sp. 230).]] |
| | der be#scheide[[3 i¬bescheiden~i stV. (überwiegend mit Akk. oder Obj.-Satz) ›jmd. etwas darlegen, jmd. informieren‹ (MWB I, Sp. 628).]] mich, durch waz / #sie t{u^o|uo} #s{o|ô} w{e|ê}·. |
| | minne i#st minne, t{u^o|uo}t / #sie wol·; |
| | t{u^o|uo}t #sie w{e|ê}, #s{o|ô} hei{zz|z}e ich #sie ni{|h}t / minne· - |
| | #sus enweiz ich, wie #sie hei{zz|z}e#n / #sol·. |
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| A Wa 12 |
| III | |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 6r |
| | [ini O|1|blau]be ich rehte bitten k#v{nd|nn}e‡,[[3 Normalisierung in i¬k#v{nd|nn}e‡~i aus Reimgründen.]] / |
| | w#c di#v minne #s{i|î}, #sprechent ›#i{a|â}‹·. |
| | minne i#st zweier herze#n wunne·; |
| | teilent #si gel{i|î}/che, #s{o|ô}#st di#v minne d{a|â}. |
| | #sol[[3 Ergänze: ›sie‹. Zur Nichtbezeichnung des pronominalen Subjekts vgl. h¬25~hMhd. Gramm. § S 110.]] ab#er #vngeteilet #s{i|î}n·, |
| | #s{o|ô} enkan #si a{ll|l}eine ein h#erze niht / enthalten·.[[3 i¬enthalten~i stV. ›festhalten‹ (Le I, Sp. 571); Wa/Bei schlägt ›bewältigen‹ vor.]] |
| | {o|ô}w{e|ê}, wolte#st d#v mir helfen, tr{#vw|iuw}e m{i|î}n·. |
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| C Wa 246 (242 [250]) |
| III | |
| III | C Wa 246 (242 [250]) = L 69,8 |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 135rb |
| | [ini O|2|rot]b ich rehte r{a|â}ten[[3 i¬râten~i stV. ›erraten‹ (Le II, Sp. 350).]] k#vnne·, |
| | wa{#s|z} d{u^i|iu} mi#n-/ne #s{i|î}, #s{o|ô} #sprechent ›#i{a|â}‹·. |
| | mi#nne i#st zwei-/er h#erzen wu#nne·; |
| | teilent #si gel{i|î}che, #s{o|ô} i#st / d{u^i|iu} mi#nne d{a|â}·. |
| | #sol[[3 Ergänze: ›sie‹. Zur Nichtbezeichnung des pronominalen Subjekts vgl. h¬25~hMhd. Gramm. § S 110.]] aber #vngeteilet #s{i|î}n·, |
| | #s{o|ô} / enkan #si ein herze aleine niht enthal-/{d|t}en.[[3 i¬enthalten~i stV. ›festhalten‹ (Le I, Sp. 571); Wa/Bei schlägt ›bewältigen‹ vor.]] |
| | {o|ô}w{e|ê}, wolde#st d#v mir helfen, fr{ow|ouw}e m{i|î}#n#·. / |
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| E Wa 158 |
| II | |
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| Überlieferung: München, UB, 2° Cod. ms. 731, fol. 177rb |
| | [ini O|1|rot]b ich rehte r{a|â}ten[[3 i¬râten~i stV. ›erraten‹ (Le II, Sp. 350).]] k{u^e|u}nne, |
| | waz / minne #s{i|î}, #s{o|ô} #sprechent [exp #ia exp]· denne ›#i{a|â}‹·. / |
| | minne i#st zweier her{tz|z}en wunne; / |
| | teilent #sie die gl{i|î}ch, #s{o|ô} i#st d{ie|iu} minne / d{a|â}·. |
| | #sols[[3-6 i¬sols~i = i¬sol si~i, i¬kans~i = i¬kan si~i.]] aber #vngeteilet #s{i|î}n·, |
| | #s{o|ô} kans / ein her{tz|z}e niht enthalten·.[[3 i¬enthalten~i stV. ›festhalten‹ (Le I, Sp. 571); Wa/Bei schlägt ›bewältigen‹ vor.]] |
| | {o|ô}w{e|ê}, w{o^e|ö}l/des_|t_ du mir helfen, fr{auw|ouw}e m{i|î}n·. / |
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| O₁ Namenl 13 |
| I | |
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| Überlieferung: Krakau, Bibl. Jagiellońska, Berol. mgo 682 , fol. 2v |
| | #P %ob ich re{ch|h}te r{a|â}ten[[3 i¬râten~i stV. ›erraten‹ (Le II, Sp. 350).]] k#vnne, |
| | waz d{ie|iu} m{y|i}nne #s{y|î}, #/ #s{o|ô} #sprechet· ›#i{a|â}‹.= #// / |
| | %Minne i#st {t|z}w{i|ei}er herzen wunne; #/ |
| | teilent #sie ge<<l{i|î}che, #s{o|ô} i#st / d{ie|iu} minne d{a|â}. #// |
| | #sol #sie aber #vngeteilet #s{i|î}n, #/ |
| | #s{o|ô} ne<<kan #sie / {ey|ei}n h#er{tz|z}e al {ey|ei}ne ni{ch|h}t enthal{d|t}e#n.[[3 i¬enthalten~i stV. ›festhalten‹ (Le I, Sp. 571); Wa/Bei schlägt ›bewältigen‹ vor.]] #/ |
| | wolte#stu mir helfen, vrouwe /#Z m{y|î}n. / |
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| A Wa 10 |
| I | |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 6r |
| | [ini F|2|blau]r{ow|ouw}e, ich eine _eine|_[[3 i¬eine~i Adv. ›allein‹ (Le I, Sp. 523).]] trage ein teil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414).]] ze>>#sw{e|æ}re. |
| | welle#st d#v mir helfen, / #s{o|ô} hilf an d#er z{i|î}t·! |
| | #s{i|î} ab#er ich dir gar #vnm{e|æ}re[[3 i¬unmære~i Adj. ›unwert, verhasst, gleichgültig‹ (Le II, Sp. 1911).]], |
| | d#c #sprich endel{i|î}che,[[3 i¬endelîche~i Adv. ›schnell‹ (Le I, Sp. 551).]] #s{o|ô} l{a|â}z ich #den / #str{i|î}t·[[3 i¬den strît lâzen~i ›nachgeben‹ (Le II, Sp. 1240); ›aufgeben‹ Wa/Bei.]] |
| | #vn#d wirt[[3 i¬wirt~i = i¬wirde~i.]] ein led{i|e}{ch|c} man. |
| | d#v #solt ab#er eine{s|z} _eines|_ rehte wizzen, |
| | d#c dich l{#v^i|ü}{z|t}/zel ieman baz danne ich geloben kan·. |
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| C Wa 247 (243 [251]) |
| IV | |
| IV | C Wa 247 (243 [251]) = L 69,15 |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 135rb |
| | [ini F|2|rot]r{ow|ouw}e, ich eine[[3 i¬eine~i Adv. ›allein‹ (Le I, Sp. 523).]] trage ein teil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414) oder, mit Bezug auf die vorhergehende Strophe (teilen/ungeteilt sein), ›an einem Teil‹ (so {Bein # 3737}).]] ze>>#sw{e|æ}re·. / |
| | welle#st d#v mir helfen, #s{o|ô} hilf an der / z{i|î}t·! |
| | #s{i|î} aber ich dir gar #vnm{e|æ}re·[[3 i¬unmære~i Adj. ›unwert, verhasst, gleichgültig‹ (Le II, Sp. 1911).]], |
| | d#c #sprich / endel{i|î}che,[[3 i¬endelîche~i Adv. ›schnell‹ (Le I, Sp. 551).]] #s{o|ô} la^^{#s#s|z}e ich den #str{i|î}t#·[[3 i¬den strît lâzen~i ›nachgeben‹ (Le II, Sp. 1240); ›aufgeben‹ Wa/Bei.]] |
| | #vn#d wirde / ein led{i|e}c man·. |
| | d#v #solt aber eines wi{#s#s|zz}e#n, / |
| | d#c dich rehte l{u^i|ü}tzel ieman ba{s|z} da#nne ich / geloben kan#·. / |
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| E Wa 159 |
| III | |
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| Überlieferung: München, UB, 2° Cod. ms. 731, fol. 177rb |
| | [ini F|1|rot]r{auw|ouw}e, ich trage ein teil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414) oder, mit Bezug auf die vorhergehende Strophe (teilen/ungeteilt sein), ›an einem Teil‹ (so {Bein # 3737}).]] z{#v^o|uo} #sw{e|æ}re·. / |
| | w{o^e|e}lle#st du mir helfen, #s{o|ô} hilf #insmir! e#st[[3 i¬e#st~i = i¬ez ist~i.]] / an· der z{i|î}t·. |
| | #s{i|î} ab<<er ich dir #v{m|n}m{e|æ}re[[3 i¬unmære~i Adj. ›unwert, verhasst, gleichgültig‹ (Le II, Sp. 1911).]][[5 Form i¬ummere~i aufgrund von Assimilation i¬n~i > i¬m~i (vgl. h¬25~hMhd. Gramm. § L 74).]], / |
| | #s{o|ô} #sprich endel{i|î}ch,[[3 i¬endelîche~i Adv. ›schnell‹ (Le I, Sp. 551).]] #s{o|ô} l{a|â}z ich den #str{i|î}t·[[3 i¬den strît lâzen~i ›nachgeben‹ (Le II, Sp. 1240); ›aufgeben‹ Wa/Bei.]] / |
| | #vn#d wirde ein #s{e|æ}l{i|e}c man·. |
| | du maht / aber eine_r|z_ rehte wizzen, |
| | daz dich nie/man l{u^e|ü}tzel baz geloben kan. |
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| O₁ Namenl 14 |
| II | |
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| Überlieferung: Krakau, Bibl. Jagiellońska, Berol. mgo 682 , fol. 2v |
| | %vrouwe, ich trage {ey|ei}n teil[[3 i¬ein teil~i ›ein wenig‹ (Le II, Sp. 1414) oder, mit Bezug auf die vorhergehende Strophe (teilen/ungeteilt sein), ›an einem Teil‹ (so {Bein # 3737}).]] z{o|uo} #sw{e|æ}re. #/ |
| | wolte#stu / mir helfen, #s{o|ô} [[1 i¬#so~i$ folgt Raum für vier Buchstaben]]h{e|i}lf an>>der z{i|î}t! #// |
| | %S{i|î} aber ich dir gar #v{m|n}-/m{e|æ}re,[[3 i¬unmære~i Adj. ›unwert, verhasst, gleichgültig‹ (Le II, Sp. 1911).]][[5 Form i¬ummere~i aufgrund von Assimilation i¬n~i > i¬m~i (vgl. h¬25~hMhd. Gramm. § L 74).]] #/ |
| | daz #sprich end{i|e}{ch|c}l{i|î}che,[[3 i¬endelîche~i Adv. ›schnell‹ (Le I, Sp. 551).]] #s{o|ô} l{a|â}z ich den #str{i|î}t[[3 i¬den strît lâzen~i ›nachgeben‹ (Le II, Sp. 1240); ›aufgeben‹ Wa/Bei.]] #// |
| | #vn#d bin von / dir {ey|ei}n led{i|e}{ch|c} man. #/ |
| | du #solt aber {ey|ei}nez re{ch|h}te wizzen, |
| | daz dich / l{u|ü}tzel ieman baz gel_e|o_ben[[1=, Konjektur nach ACEf]] kan. / |
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| E Wa 160 |
| IV | |
| IV | E Wa 160 = L [⁷190,1] 191,1 |
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| Überlieferung: München, UB, 2° Cod. ms. 731, fol. 177rb |
| | [ini I|1|rot]ch· // wil al#s{o|ô} #singen imm#er·, |
| | daz #sie denne / #sprechent: ›er ge#sanc nie baz·.‹ |
| | des ge/danke#st du mir nimmer·. |
| | daz verwiz/ze[[3 i¬verwizzen~i anV. ›jmd. in einer Sache für unschuldig halten‹ (Le III, Sp. 313), wenn nicht wie in den anderen Zeugen i¬verwîzen~i stV. ›tadelnd vorwerfen‹ (Le III, Sp. 312).]] ich dir alr{e|ê}#st,[[3 i¬alr{e|ê}#st~i = i¬allerêrst~i.]] #s{o|ô} denne daz·.[[3 Wa/Bei verweist auf die schwere Verständlichkeit des Teilsatzes i¬#s{o|ô} denne daz~i und seinen unklaren Bezug. Möglicherweise bezieht er sich auf den Wunsch der anderen (V. 5f.). Daher wäre auch ein Doppelpunkt nach i¬daz~i erwägenswert (so {Schweikle 2011 # 546}).]] |
| | wei#stu, / wes #sie w{u^e|ü}n#schent dir·? |
| | ›daz #sie #s{e|æ}l{i|e}{g|c} / #s{i|î}, von der man #vns #s{o|ô} #sch{o|ô}ne #singet.‹ / |
| | #sich,[[3 i¬sich~i = i¬sihe~i.]] fr{auw|ouw}e, den gemeinen[[3 i¬gemeine~i Adj. ›allgemein, gemeinschaftlich‹ (Le I, Sp. 840).]] wun#sch / h{a|â}#st {au|ou}ch von mir. |
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| O₁ Namenl 15 |
| III | |
| III | O₁ Namenl 15 = L [⁷190,1] 191,1 |
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| Überlieferung: Krakau, Bibl. Jagiellońska, Berol. mgo 682 , fol. 2v |
| | Ich wil al#s{o|ô} #singen {y|i}mmer, #/ |
| | daz #sie danne #sprechen: ›er ne/#sanc n{e|ie} baz‹. #// |
| | de#s ne<<gedanke#stu mir n{y|i}mmer. #/ |
| | daz v{u|e}r<<w{i|î}z[[3 i¬verwîzen~i stV. ›tadelnd vorwerfen‹ (Le III, Sp. 312).]] / ich dir alr{e|ê}#st,[[3 i¬alr{e|ê}#st~i = i¬allerêrst~i.]] #s{o|ô} denne daz.[[3 Wa/Bei verweist auf die schwere Verständlichkeit des Teilsatzes i¬#s{o|ô} denne daz~i und seinen unklaren Bezug. Möglicherweise bezieht er sich auf den Wunsch der anderen (V. 5f.). Daher wäre auch ein Doppelpunkt nach i¬daz~i erwägenswert (so {Schweikle 2011 # 546}).]] #// |
| | wei#stu, wie #sie wun#schen dir? #/ |
| | ›daz / #sie #s{a|æ}l{i|e}{ch|c} #s{y|î}, #/ durch die man #vn#s #su#s #sin{gh|g}et.‹ #/ |
| | #sich,[[3 i¬sich~i = i¬sihe~i.]] vrouwe, den / gem{ey|ei}nen[[3 i¬gemeine~i Adj. ›allgemein, gemeinschaftlich‹ (Le I, Sp. 840).]] wun#sch h{a|â}#stu ouch von mir. / |
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| A Wa 11 |
| II | |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 357, fol. 6r |
| | [ini K|1|rot]an m{i|î}n fr{ow|ouw}e #s{#v^o|üe}ze #s{#v|iu}ren·, |
| | wan ez / #s{i|î}, d#c ich liep gebe #vmbe leit·? |
| | #sol ich #si dar #vmbe t{#v^e|iu}ren·,[[3 i¬tiuren~i swV. trans. ›verherrlichen, ehren‹ (Le II, Sp. 1447).]] |
| | d#c #si ez[[3 i¬ez~i bezieht sich auf das i¬leit~i (V. 2).]] wid#er k{e|ê}re[[3 i¬widerkêren~i swV. ›zurückwenden, vergüten‹ (Le III, Sp. 840).]][[??? Pfeiffer setzt Reimpunkt - ML: Muss dies in einem Apparateintrag vermerkt werden?]] gar an[[3 Die Bedeutung von i¬an~i ist abhängig von der Interpretation des i¬widerkêren~i: ›zurückwenden zu, vergüten wegen‹.]] / m{i|î}ne w#erdecheit·? |
| | #s{o|ô} k#vnd ich #vnrehte #spehen·.[[3 Drei Verständnisweisen dieses Verses sind mit Blick auf den Kontext möglich: ›die Dame auf ungebührliche Weise betrachten können‹, ›nicht richtig sehen können‹ oder ›seinen Augen nicht trauen können‹ (diese Variante in {Bein # 3737}).]] |
| | w{e|ê}, w#c #sprich ich {o|ô}renl{o|ô}#s{o|e}r, o#vgen / {a|â}n? |
| | den di#v minne blendet, wie mac der ge#sehen·? |
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| C Wa 244 (240 [248]) |
| I | |
| I | C Wa 244 (240 [248]) = L 69,22 |
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| Überlieferung: Heidelberg, UB, cpg 848, fol. 135ra |
| | [ini K|2|rot]an m{i|î}n fr{ow|ouw}e #s{#v^e|üe}{#s#s|z}e #s{#v|iu}ren·?[[3/3 i¬v~i für Langvokal i¬iu~i wie in i¬#s#vren~i und i¬t#vren~i kommt nur noch in denselben Wörtern in C Botenl 1, V. 2 und 4 vor, außerdem in C Tannh 5, V. 78 bei einem Eigennamen. Ansonsten kennt die Hs. hierfür i¬v^i~i, i¬u^i~i oder i¬iv~i. Möglich wäre, dass eine Reimangleichung von i¬t{#v|iu}ren~i an i¬#s{#v|iu}ren~i erfolgte, wenn es sich tatsächlich um das Verb i¬sûren~i swV. ›sauer sein, sauer werden‹ (Le II, Sp. 1325) handelte. Entsprechend wäre i¬#s{#v^e|üe}{#s#s|z}e~i Adj. zu i¬fr{ow|ouw}e~i.]] |
| | w{e|æ}net / #si, d#c ich gebe lieb #vmbe leit#·? |
| | #sol ich / #si dar #vmbe t{#v|iu}ren·, |
| | d#c #si e{s|z}[[3 i¬e{s|z}~i bezieht sich auf das i¬t{#v|iu}ren~i.]] wider k{e|ê}re[[3 i¬widerkêren~i swV. ›zurückwenden, umwenden‹ (Le III, Sp. 840).]] / gar an m{i|î}n #vnw#erde{k|ch}eit·? |
| | #s{o|ô} k#vnde ich // #vnrehte #spehen·.[[3 Drei Verständnisweisen dieses Verses sind mit Blick auf den Kontext möglich: ›die Dame auf ungebührliche Weise betrachten können‹, ›nicht richtig sehen können‹ oder ›seinen Augen nicht trauen können‹ (diese Variante in {Bein # 3737}).]] |
| | w{e|ê}, w#c #sprich ich {o|ô}renl{o|ô}=/#ser, {o^v|ou}gen {a|â}ne[rad · rad]? |
| | den d{u^i|iu} mi#nne bl[mut i mut][ins e ins]ndet, [[1 i¬blindet~i$ i¬i~i zu i¬e~i gebessert, nochmals i¬e~i mit feiner Feder über der Zeile eingetragen]]wie / mac der ge#sehen·? / |
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| E Wa 161 |
| V | |
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| Überlieferung: München, UB, 2° Cod. ms. 731, fol. 177va |
| | [ini K|1|rot]an m{i|î}n fr{au/w|ouw}e #s{u^e|üe}{zz|z}e #s{u^e|üe}{zz|z}en·?[[3 i¬#s{u^e|üe}{zz|z}e #s{u^e|üe}{zz|z}en~i ›das Angenehme angenehm machen‹, wohl komparativisch ›angenehmer machen‹ (zusammen mit dem Vorhergehenden möglicherweise als Irrealis zu verstehen i. S. v. ›kann denn ...‹/›ist es überhaupt möglich ...‹).]] |
| | wil #sie, daz ich ir ge/be liep {#v^e|u}{mm|mb}e leit·? |
| | #sol ich #sie dar / {#v^e|u}{mm|mb}e gr{u^e|üe}{zz|z}en·, |
| | daz #sie wider¦k{e|ê}re[[3 Der Trennstrich in der Hs. zwischen i¬wider~i und i¬k{e|ê}re~i zeigt an, dass die Phrase nicht als Kompositum verstanden werden soll. Entsprechend steht die Bedeutung in Verbindung mit i¬an~i ›wieder hinwenden zu‹ oder ›wieder angreifen‹ (vgl. i¬an einen kêren~i ›jdn. angreifen‹ [Le I, Sp. 1553]).]] / an m{i|î}n werde{k|ch}eit·? |
| | #s{o|ô} kan ich #vn/rehte #spehen·.[[3 Drei Verständnisweisen dieses Verses sind mit Blick auf den Kontext möglich: ›die Dame auf ungebührliche Weise betrachten können‹, ›nicht richtig sehen können‹ oder ›seinen Augen nicht trauen können‹ (diese Variante in {Bein # 3737}).]] |
| | w{e|ê}, waz #spriche ich? / wenne·[[3 i¬wenne~i = i¬wan~i. Das metrische Schema erfordert weibliche Kadenz.]] |
| | #swen_ne|_ die minne blendet, / wie mac der ge#schehen·?[[3 i¬wie mac der ge#schehen~i ›wie mag es dieser ergehen‹; i¬der~i wäre einfaches Dem.-Pron. Dat. Fem., was eine Konkretion des mit der Dame assoziierten i¬swen~i wäre; vgl. aber die Parallelüberlieferung mit der Lesart i¬gesehen~i, die sich direkter in den Zusammenhang fügt (blenden und sehen).]] |
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| O₁ Namenl 16 |
| IV | |
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| Überlieferung: Krakau, Bibl. Jagiellońska, Berol. mgo 682 , fol. 2v |
| | Kan m{y|î}n vrouwe #s{u^o|uo}ze #s{#v|iu}ren? #/ |
| | w{e|æ}net #sie, daz ich ir liep gebe / #v{mm|mb}e leit? #// |
| | #solt ich #sie dar #v{mm|mb}e {th|t}{u|iu}ren, #/ |
| | daz #s{e|i} #sich k{e|ê}re an[[3 i¬sich kêren an~i ›achten auf, sich kümmern um‹ (Le I, Sp. 1552).]] / m{y|î}n #vnwerd{i|e}cheit? #// |
| | #s{o|ô} k#vnde ich #vn<<re{ch|h}te #spehen.[[3 Drei Verständnisweisen dieses Verses sind mit Blick auf den Kontext möglich: ›die Dame auf ungebührliche Weise betrachten können‹, ›nicht richtig sehen können‹ oder ›seinen Augen nicht trauen können‹ (diese Variante in {Bein # 3737}).]] #/ |
| | {o|ô}w{e|ê}, waz / rede ich {o|ô}rl{o|ô}#ser #vn#d ougen {a|â}ne·? |
| | #swe#n minne blendet, wie mac der /#Zge#sehen? / |
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